सर्व शक्ति महामाया दिव्य ज्ञान स्वरूपिणी

नव दुर्गे जगन्मातर प्रणमामि मुर्मुहूह।।


 

 

 

 

मिथिलांचल के पावन भूमि पर अवस्थित लतिफुल्लाहपुर, बहेडा में सन् १९०६ में कायस्थ समाज के तत्कालीन उदीयमान समाजवादी धर्मपरायण गणमान्य यथा: यदुवंशी लाल दास, भगवत नारायण दास, राम प्रसाद दास एवं हरी नारायण दास को एक साथ दैवीय प्रेरणा हुई कि इस गॉंव में दुर्गा मंदिर की स्थापना कर शारदीय दुर्गा पूजनोत्सव का आयोजन किया जाए, परन्तु वे इस प्रेरणा-बोध को एक दुसरे के समक्ष प्रकट करने से बचते रहे । एक समय ऐसा आया कि अलौकिक शक्ति ने चारों को एक सूत्र में बांधकर उनके मन मस्तिस्क में वांछित उद्देश्य को उद्वेलित कर दिया, फलतः उन्होंने शारदीय दुर्गा पूजनोत्सव के आयोजन का संकल्प ले लिया । तत्पश्चात उन्होंने पूरे उत्साह व उमंग से सक्रिय होकर दुर्गा मंदिर की स्थापना हेतु स्थल चयन, मंदिर-निर्माण हेतु सामग्रियाँ, प्रतिमा-निर्माण हेतु मूर्तिकार, पूजा अनुष्ठान हेतु विधि-विधान व ज्योतिषाचार्य की खोज और आयोजन को भव्यता व आकर्षण प्रदान करने हेतु कथा-वाचक व भजन कीर्तन मंडली एवं मेला व बाजार के सञ्चालन हेतु गॉंव- गॉंव व घर-घर से संपर्क साधा और हर प्रकार का सहयोग प्राप्त किया । फलतः श्री श्री १०८ शारदीय दुर्गा पूजनोत्सव-१९०६ का आयोजन सम्पन्न व सफल हुआ।

 

मिथिलांचल के इस भाग(क्षेत्र) अर्थात सकरी, मनीगाछी, बिरौल, एवं बहेड़ी आदि गॉंवों की परिधि में अंकुरित सिद्ध पीठ तो कई थे और है, परन्तु सार्वजनिक दुर्गा-पूजनोत्सव का आयोजन सिवाय लतिफुल्लाहपुर बहेड़ा के और कहीं नहीं होता था।

 

इस मंदिर में देवी दुर्गा-पूजनोत्सव से इस भाग(क्षेत्र) में एक नयी धार्मिक ऊर्जा का संचार हुआ। श्रद्धालुगण आस्था और श्रद्धा से इस मंदिर में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना कर अपनी-अपनी मनोकामना की सिद्धि से अभिभूत हो उठे और उनके कृपा पात्र बने रहने के लिए सेवा में समर्पित हो गए। तांत्रिक योगी भी अपनी-अपनी तंत्र विद्या की सिद्धि के लिए देवी दुर्गा की साधना में लीन हो गए और साधना सिद्धि के उपरांत मानव कल्याण में निकल परे। इस दैवीय चमत्कारिक प्रभाव का प्रचार प्रसार दूर दूर तक फ़ैल गया।

 

अभिभूत श्रद्धालुओं द्वारा चमत्कारिक घटनाओं व प्रभावों का वर्णन प्रायः सुनते-सुनाते देखे जाते हैं। प्रमथनाथ भट्टाचार्य द्वारा लिखित पुस्तक “भारत के महान साधक” में भी इस मंदिर का वर्णन पढ़ा जा सकता है।

 

– सन् १९३९ ई. में मंदिर की देखरेख व रख रखाव, सम्पति की रक्षा, पूजा-अर्चना का संचालन एवं दैनिक आरती व भोग आदि के प्रबंधन तथा आय-व्यय संधारण हेतु न्यास(ट्रस्ट) की स्थापना हुई, जिसके न्यासी(ट्रस्टी) सदस्य सर्वप्रथम बद्री नारायण दास, रघुनन्दन लाल दास, बलदेव दास, गंगा नारायण दास, हरी नारायण दास, देवकी नंदन दास, मधुरी मल्लिक, गिरिवरधारी दास, एवं दशरथ लाल दास मनोनीत हुए और ट्रस्ट बहेड़ा रजिस्टरी ऑफिस में निबंधित हुआ। गंगा नारायण दास, रघुनंदन लाल दास, बलदेव दास, जय किशोर दास, गिरिवरधारी दास एवं वैद्यनाथ दास ने श्री श्री १०८ दुर्गा स्थापित मंदिर लतिफुल्लाहपुर के नाम वजरिये निबंधित समर्पणनामा भूमि दान दी।

 

– सन् १९६० ई. में पूजा स्थल पर मेला और बाजार को और अधिक विस्तार व व्यापक रूप देने के लिए बड़े परदे पर चलचित्र(सिनेमा) यथा : कारीगर, सुजाता, नन्हे फरिस्ते एवं कबीर आदि के प्रदर्शन से दूर-दराज के क्षेत्र से दर्शनाभिलाषियों का अपार जन समूह उमड़ पड़ा। लोग चारों ओर से चार दिनों के प्रवास में भोजन की पोटली लेकर पूजा-स्थल पर जमे रहे थे।

 

– सन् १९९३ ई. में वैदिक रीति व पद्धति से पूजा-अनुष्ठान में बकरे की बलि-प्रथा समाप्त कर दी गयी। कारण यह था कि श्रध्दालुओं में एक अटूट विश्वास था कि यदि उन्हें बलि दिए बकरे का कोई हिस्सा(अंग) प्रसाद स्वरुप मिल जाये तो वे धन्य हो जाये। इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ता था। कभी-कभी तो लोक परिशान्ति के भंग होने की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, जिससे आयोजक को शांति कायम करने में स्थानीय प्रशासन की मदद लेनी पड़ती थी। इस पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से ज्योतिषाचार्य पंडितों में राय-मशवरा कर बकड़े की बलि-प्रथा को समाप्त कर दिया गया। उसके बदले में कुम्हर(अन्य विकल्प) की बलि-प्रथा प्रारंभ की गयी, जो आज भी प्रचलन में है।

 

– सन् १९९९ ई. में एक महिला  श्रद्धालु को सवप्न में देवी दुर्गा की प्रेरणा हुई कि यदि वह इस मंदिर में सांध्य दीप प्रज्वलित करे तो उसके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे। उसने वैसा ही किया और उन्हें इसका सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुआ। इस बात का प्रचार-प्रसार गॉंव-गॉंव व शहर-शहर में ऐसा हुआ कि हज़ारों-लाखों की संख्या में सांध्य दीप प्रज्वलित करने के लिए भीड़ जमा हो गयी। यह क्रम कई महीनों तक चलता रहा।

 

– सन् २००३ ई. में वर्तमान मंदिर के पुनर्निर्माण हेतु वैद्यनाथ दास द्वारा भूमि-पूजन व शिलान्यास किया गया तथा निर्माण-कार्य की अग्रणी भूमिका में श्री श्यामाकांत लाल दास, श्री पीताम्बर लाल दास, श्री लक्ष्मीकांत लाल दास एवं श्री रामेश्वर लाल दास द्वारा गॉंव-गॉंव एवं घर-घर जनसम्पर्क कर श्रद्धालुओं से आर्थिक व अन्य सहयोग प्राप्त किया गया, फलस्वरूप सन् २००६ ई. में भव्य दुर्गा-मंदिर का निर्माण-कार्य सम्पन्न हुआ । सौंदर्यीकरण का कार्य निरंतर-अनवरत जारी है।

 

– सन् २००७  ई. से देवी दुर्गा के स्थापित मंदिर में शारदीय दुर्गा पूजनोत्सव सम्बन्धी प्रबंधन आदि के लिए पूजा समिति का गठन किया जाना प्रारंभ हुआ, जिसमें अध्यक्ष, सचिव एवं कोषाध्यक्ष का चयन आम सभा में सर्व सम्मति से किया जाने लगा तथा पूजा-अर्चना, भजन-संकीर्तन, सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं विधि-व्यवस्था आदि विषय- बिंदुओं पर विचार-विमर्श कर समुचित निर्णय लिया जाने लगा ताकि दुर्गा पूजनोत्सव के आयोजन का संचालन सुचारु रूप से सम्पन्न व सफल होवे।

 

– सन् २०१७ ई. में इस मंदिर परिसर के मुख्य प्रवेशद्वार एवं चारदीवारी के निर्माण हेतु श्री श्यामाकांत लाल दास द्वारा भूमि-पूजन व शिलान्यास किया गया तथा निर्माण कार्य की अग्रणी भूमिका में श्री सुनील कुमार दास, सुधीर कुमार मल्लिक, विनय शंकर दास एवं कमलेश चंद्र दास द्वारा श्रद्धालुओं से आर्थिक व अन्य सहयोग प्राप्त किया गया, फलस्वरूप भव्य मुख्य प्रवेश-द्वार का निर्माण सम्पन्न हुआ । 

 

विशिष्टियाँ:

 

१. दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती का प्रतिमा-निर्माण बंद चाल(फ्रेम) के अंदर होता है।

 

२. शेष गणेश, कार्तिक, शिव, पार्वती, रमंत एवं भैरव का प्रतिमा-निर्माण चौकी(तख़्त) पर होता है।

 

३. वर्ष भर सुनिश्चित दिवस को लक्ष्मी, चित्रगुप्त, सरस्वती एवं महादेव का पूजा-अनुष्ठान होता है।

 

४. इस मंदिर में दुर्गा- पूजा पद्धति दरभंगा महाराज द्वारा स्थापित दुर्गा मंदिर की पूजा- पद्धति प्रचलन में है।

 

५. मंदिर व पूजा सम्बन्धी आय-व्यय का विवरण नियमित रूप से संधारित होता है।

 

६. श्रद्धालुगण यथासाध्य आर्थिक व आभूषण आदि का दान देकर देवी दुर्गा के कृपा पात्र बनते हैं तथा अपने व अपने परिवार के सुख शांति की मनोकामना कर सिद्धि के उपरांत चढ़ावा चढ़ाते हैं।

 

७. मंदिर के वाचनालय में विभिन्न प्रकार के धार्मिक ग्रंथों एवं पुस्तकों का संग्रह उपलब्ध हैं।